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कविता

जिजीविषा

महेंद्र भटनागर


जी रहा है  आदमी
प्यार ही की चाह में !

पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गह-गह कर घहरती आँधियाँ,
     पर, अजब विश्वास ले
     सो रहा है  आदमी
     कल्पना की छाँह में !

पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
     पर, अजब विश्वास ले
     चल रहा है  आदमी
     साथ पाने  राह में !

बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती  वीरान हैं  अमराइयाँ,
     पर, अजब विश्वास ले
    हँस  रहा है  आदमी
     आँसुओं में, आह में !


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